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मुहर्रम महीने से ही क्यों होती है नए इस्लामिक कैलेंडर की शुरुआत, जानिए इसका महत्व और इतिहास

इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार इस्लामिक न्यू ईयर की शुरुआत 30 जुलाई से हो चुकी है और इसके साथ ही मुहर्रम की भी शुरुआत हो जाती है. इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक साल का पहला महीना मुहर्रम होता है, जिसे ‘गम का महीना’ भी कहा जाता है. इस्लामिक कैलेंडर ग्रेगोरियन कैलेंडर (Islamic New Year 2022) से लगभग 11 दिन छोटा होता है और इसलिए इसमें 365 दिनों की बजाय मात्र 354 दिन होते हैं. आइए जानते हैं इस बार कब मनाया जाएगा मुहर्रम और इसका इतिहास

इस्लामिक कैलेंडर के नए साल के पहले महीने का नाम ‘मुहर्रम’ है. 1400 साल पहले इस महीने की 10 तारीख को अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद (स:अ:व:व) के छोटे नवासे इमाम हुसैन को उनके परिवार और 72 अनुयायियों समेत मार दिया गया था. इमाम हुसैन पर ये ज़ुल्म 1400 साल पहले करबला (ईराक के शहर) में हुआ. मुहर्रम महीने में हर साल उन्हीं शहीदों का मातम मनाया जाता है।

इस्लाम का उदय मदीना (सऊदी अरब का शहर) से हुआ. मदीना से (1132 कि.मी या 704 मील) दूर ‘शाम’ (सीरिया का शहर) में मुआविया नामक शासक का दौर था. मुआविया की मौत के बाद शाही वारिस के रूप में यजीद, शाम की गद्दी पर बैठा. यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन करें क्योंकि वह मोहम्मद साहब के नवासे हैं और वहां के लोगों पर उनका अच्छा प्रभाव है. यजीद को इस्लाम का शासक मानने से मोहम्मद के घराने ने इन्कार कर दिया था, क्योंकि यजीद के लिए इस्लामिक मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी. यजीद की बात से इनकार के साथ ही हुसैन ने फैसला लिया कि अब वह अपने नाना का शहर मदीना छोड़ देंगे, ताकि वहां अमन कायम रहे।

हुसैन मदीना छोड़कर परिवार और कुछ आत्मीयों के साथ इराक की तरफ जा रहे थे. करबला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया. यजीद ने उनके सामने कुछ शर्तें रखीं, जिन्हें इमाम हुसैन ने मानने से फिर से इनकार कर दिया. शर्त नहीं मानने के बदले में यजीद ने जंग करने की बात रखी. इस दौरान इमाम हुसैन इराक के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ फुरात नदी (सीरिया) के किनारे तम्बू लगाकर ठहरे.यजीदी फौज ने हुसैन के तम्बुओं को नदी किनारे से हटवा दिया. वह पहली मुहर्रम की तारीख थी, और गर्मी का वक्त था. गौरतलब हो कि आज भी इराक में (मई) गर्मियों में दिन के वक्त सामान्य तापमान 50 डिग्री से ज्यादा होता है।

ऐसे शुरू हुई जंग

ये बात साफ थी कि हुसैन जंग के इरादे से नहीं चले थे. उनके काफिले में केवल 72 लोग थे जिसमें छह माह के बेटे समेत उनका परिवार भी शामिल था, यानी उनका लड़ाई का कोई इरादा नहीं था. सात मुहर्रम तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना और पानी था, वह खत्म हो चुका था. इमाम सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे. 7 से 10 मुहर्रम तक (तीन दिन तक) इमाम हुसैन उनके परिवार के सदस्य और उनके साथी भूखे-प्यासे रहे।

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