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महामारी के दौरान, गावों पर संकट की स्थिति

देश में कोरोना महामारी की स्थिति जटिल बनी हुई है, इससे अब तक तबाही के दो तूफान गुजर चुके हैं, इस समय में तूफान से नष्ट – भ्रष्ट भारत की बहुत ही भयावह तस्वीरें हमने देखी | देश में जैसे ही कोरोना ने दस्तक दी। बड़ी ही तेजी और सख्ती के साथ इसे हराने के प्रयास किए गए। फिर भी कई लोगों ने अपनी जिंदगी खो दी, तो कई लोगो ने अपनों को खो दिया, लेकिन जल्दी ही कोरोना पर काबू पाया गया। इस महामारी के समय में पूरा देश उथल – पुथल हो गया जिससे उबरने में शायद बरसों लगेंगे | हालांकि इस पूरी प्रक्रिया में गरीब प्रवासियों को विकट परिस्थितियां और अपूरणीय क्षति झेलनी पड़ी।

एक जानी-मानी कहावत है कि रोग और शत्रु को कभी कम नहीं आंकना चाहिए। जिस कोरोना-व्यवहार को अपना कर हमने महामारी को हराया, उसे स्वयं ही उठा कर ताख पर रख दिया। नेता, प्रशासन और जनता सब भूल गए कि महामारी अभी गई नहीं है। मौका देखते ही फिर हमला कर सकती है । आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक सभी प्रकार की गतिविधियां सब ऐसे आयोजित होने लगीं, मानो महामारी नाम की विपदा को हमने हमेशा के लिए जमीन में गाड़ दिया है। टीकाकरण की व्यवस्था की शुरुआत ने हमारे इस हौसले को और ज्यादा बुलंद कर दिया।

इस बार महामारी ने कई गुनी ताकत से फिर हमला बोला। हालांकि पिछले वर्ष जैसी तुरंत पूर्णबंदी लागू नहीं की, क्योंकि चुनाव, कुंभ, शादी-ब्याह, सैर-सपाटे आदि गतिविधियां चालू थीं। उन्हें रोकना आसान नहीं था। पर इस बार कोरोना का हमला इतना जबरदस्त था कि देखते-देखते पूरी स्वास्थ्य-व्यवस्था चरमरा गई है। अचानक लौटी विपदा ने बड़े से बड़े शहरों के बड़े-बड़े अस्पतालों की पोल खोल दी। सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह हुई है कि महामारी ने गांवों को अपनी चपेट में ले लिया है।

घरों में मौतें होने लगीं तो समझ में आया कि वे विकट महामारी के चक्रव्यूह में फंस गए हैं

हर तरफ खबरे देखने को मिली की गांव में बड़ी तादात में लोग जुकाम, बुखार, खांसी से पीड़ित हैं। उनकी कोरोना की जांच की समुचित व्यवस्था नहीं है | वहाँ लोगों को जानकारी ही नहीं थी कि वे घातक बीमारी के शिकार हैं। वे मान रहे थे कि मौसम बदलने की वजह से सामान्य जुकाम-खांसी है, दो-चार दिन में ठीक हो जाएगी। लेकिन जब एक के बाद एक घरों में मौतें होने लगीं तो समझ में आया कि वे विकट महामारी के चक्रव्यूह में फंस गए हैं। गांव में इलाज की छोटी – मोटी जो भी सुविधा उपलब्ध थी, उसके सहारे कोरोना से जंग लड़ते ग्रामीणों की खबरें मीडिया में आने पर राज्य प्रशासन हरकत में आया। जिसके बाद स्वास्थ्य कर्मियों की थोड़ी-बहुत टीमों ने गांव की ओर रुख किया।

साल-सवा साल के दौरान महामारी से लड़ने के लिए गांव की जनता के लिए क्या व्यवस्था की गई ?

महामारियों के इतिहास और विशेषज्ञों की राय से कोई भी सबक लिए बगैर हम मान बैठे कि हमने कोरोना को हरा दिया है। इस बात की तैयारी ही नहीं की गई कि अगर दूसरी या तीसरी लहर आई तो लोगों को कैसे बचाया जाएगा और अगर यह गांवों में फैली तो उसे कैसे संभाला जाएगा। अब जब महामारी गांवों में तेजी से फैली, तब न तो बीमारी के उपचार की समुचित व्यवस्था हो पाई, न मृतकों के अंतिम संस्कार की। गांवों में चिकित्सा सुविधा का हमेशा से अभाव रहा है।वही महामारी की दूसरी लहर आने के बावजूद गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रति शासन के पूरी तरह से उदासीन रवैए ने स्थिति को और बदतर बना दिया।

डॉक्टर, स्वास्थ्यकर्मी और दवाओं की हमेशा से कमी रही

दरअसल, पिछले कई दशकों से गांवों में कोई चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं है। आजादी के बाद पचास के दशक में ही गांवों में सरकारी अस्पताल तो बनाए, लेकिन डॉक्टर, स्वास्थ्यकर्मी और दवाओं की हमेशा से कमी रही । ग्रामीण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा पिछले सत्तर वर्षों से चरमराई हुई ही रही है। सरकारें बदलती रहीं, किंतु निष्ठा और इच्छाशक्ति के अभाव और राजनीतिक स्वार्थों के चलते इन बुनियादी सेवाओं को कारगर ढंग से सुधारा नहीं जा सका। सरकारी सेवा में तैनात डॉक्टर या शिक्षक गांवों में जाने से कतराते हैं। निजी चिकित्सा सुविधा के नाम पर गांव में वही डॉक्टर उपलब्ध होते हैं जिन्हें क्षमता के अभाव में शहर में कोई नहीं पूछता। बीमारी का कोई भी संकट आने पर गांव के आदमी को शहर की ओर रुख करना पड़ता है। और शहर में इलाज के लिए मरीज को वही ले जा सकता है जिसकी जेब में चार पैसे हो । गरीब ग्रामीण जन तो भगवान भरोसे है। हमारे यहां ग्रामीण जन और शहरी जन के जीवन के बीच बहुत बड़ी दूरी है और इसे सिलसिलेवार ढंग से कायम रखा गया है। शहरी आदमी ग्रामीण का अपनी जरूरतों के लिए इस्तेमाल तो करना चाहता है और करता भी है, लेकिन उसे अपना कभी नहीं मानता। अगर ऐसा न होता तो मजदूर वर्ग को पिछले वर्ष अपने ही देश में भूखे-प्यासे हजारों किलोमीटर पैदल यात्रा नहीं करनी पड़ती ?

ग्रामीण जन को सब सुविधाएं वास्तव में प्रदान करने की जरुरत

राजनीतिक दल भी अपने फायदे के लिए ग्रामीण व्यक्ति का इस्तेमाल करते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में गांवों की भागीदारी है, पर उसका वास्तविक लाभ राजनीतिक नेताओं-कार्यकतार्ओं को ही मिलता है, न कि सामान्य ग्रामीण जन को। स्थानीय निकाय तो बने हैं लेकिन वो कुछ लोगों को लाभ पहुंचाने के सिवाय आमजन के लिए कुछ नहीं कर पाए हैं। इलाज, रोजगार या शिक्षा की समुचित व्यवस्था करने में असमर्थ रहे हैं। आज जरूरत है शहरी और ग्रामीण जीवन के बीच भेद भाव के धागे को फिर से जोड़ने की, ग्रामीण जन को वह सब सुविधाएं वास्तव में प्रदान करने की जरुरत है। जिनकी ग्रामीणों को जरुरत है।

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