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Jyotiraditya Scindia: सूबे के सियासत के कद्दावर राजनेता, ज्योतिरादित्य सिंधिया

Jyotiraditya Scindia: ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजघराने में शाही शानौ-शौकत के साथ परवरिश हुई। होश संभालने के साथ सियायत के अखाड़े में कदम रखा। राजनीति की नब्ज को पहचानने में उनको ज्यादा वक्त नहीं लगा और कुछ ही सालों में वे जनता के चहेते राजनेता बन गए। कांग्रेस में वे गांधी परिवार के काफी करीबी रहे और उनको इस सियासी खानदान से वाजिब सम्मान भी मिला, लेकिन जब मध्य प्रदेश की राजनीति के रसूखदार उनको दरकिनार करने लगे तो सियासी अखाड़े में मात देने में उन्होंने जरा भी देर नहीं लगाई और पार्टी को छोड़कर पंद्रह साल बाद बनी प्रदेश की कांग्रेस सरकार को गिराकर भाजपा का दामन थाम लिया और इस भगवा पार्टी में भी सीएम शिवराज के् साथ कदमताल करते हुए तेजी से सियासी सिढ़ियों को चढ़ रहे हैं।

चंबल इलाके में हैं सियासी रसूख

ज्योतिरादित्य सिंधिया कभी कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे। चंबल इलाके में उनका काफी रसूख रहा और अपने दम पर कांग्रेस को सत्ता को स्वाद भी चखाया, लेकिन जब मध्य प्रदेश की सियासत में दमखम रखने वाले नेताओं दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ने उनके सियासी वजूद को मिटाने की कोशिश की तो उनको अपनी ताकत का एहसास कराने में सिंधिया ने जरा भी देरी नहीं की। आखिर क्यों उनको बागी तेवर अख्तियार करने पड़े? जिस पार्टी की जड़ें उन्होंने अपने खून-पसीने से सिंची थी उसको जड़ से उखाड़ने की सौगंध खाने के वो क्यों मजबूर हुए? गांधी खानदान के खास होने के बावजूद आखिर क्यों उससे दूरी बनाने का मंसूबा उन्होंने बनाया? दरअसल इस सियासी ड्रामे की पटकथा आज से दो साल पहले मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में लिखी जा चुकी थी।

दिग्विजय सिंह से रही है पुरानी अदावत

साल 2018 में कांग्रेस ने चुनाव से ठीक छह महींने पहले कमलनाथ को दिल्ली दरबार के द्वारा सूबे की बागडोर सौंपी। सिंधिया को पूरी उम्मीद थी की इस बार प्रदेश प्रमुख उनको बनाया जाएगा, लेकिन जब बाजी कमलनाथ के हाथ लगी तो गांधी परिवार का यह फैसला उनको रास नहीं आया। पार्टी की नाराजगी को दूर करने के लिए उनको चुनाव प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बना दिया।

विधानसभा चुनाव में जब टिकट के बंटवारे की बात आई तो दिग्विजय सिंह और कमलनाथ से उनको जमकर जोर-आजमाइश करना पड़ी। दिग्विजय सिंह से तो उनकी आलाकमान के सामने काफी बहस हुई और वो बैठक छोड़कर चले गए थे। क्योंकि दोनों नेता नहीं चाहते थे कि सिंधिया खेमे को ज्यादा टिकट मिले और कांग्रेस को बहुमत मिलने पर मुख्यमंत्री पद पर उनका दावा मजबूत हो। इसलिए उनके समर्थकों के काफी टिकट काटे गए।

दिल्ली दरबार से हुए नाउम्मीद

कम टिकट मिलने के बावजूद सिंधिया समर्थकों ने उम्मीद से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया और सिंधिया के प्रभाव वाले ग्वालियर-चंबल अंचल में ही कांग्रेस ने 34 में से 27 सीटें जीती। इस तरह 30 से ज्यादा सिंधिया समर्थक जीतकर विधानसभा पहुंचे। चुनाव में भाजपा के निशाने पर भी सिंधिया ही थे और पार्टी ने नारा दिया था ‘माफ करो महाराज, हमारा नेता शिवराज’। चुनाव में बहुमत के नजदीक आते ही दिग्विजय के साथ मिलकर कमलनाथ ने सत्ता में अपनी दावेदारी को मजबूत कर लिया और तीन-चार दिनों तक चली रस्सकसी के बाद सोनिया दरबार ने प्रदेश की बागडोर कमलनाथ को सौंप दी। सिंधिया इस शिकस्त से काफी आहत हुए और अपने सियासी वजूद को बचाने की लड़ाई में लग गए।

मुख्यमंत्री पद का दावा था मजबूत

कमलाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद जब मंत्रियों के विभाग के बंटवारे की बात आई तो उसको लेकर भी लंबे समय तक खींचतान चलती रही। सिंधिया सूबे के प्रमुख की दौड़ से बाहर होने के बाद अपने समर्थकों को बेहतर पोर्टफोलियों दिलवाना चाहते थे, लेकिन यहां भी दिग्विजय सिंह ने अपना दांव खेला और कमलनाथ के साथ तुकबंदी करते हुए दोनों नेताओं ने अपने दिग्गजों को बड़े ओहदे वाले मंत्रालय दे दिए।

सिंधिया समर्थक मंत्रियों के कतरे पर

इस सारे सियासी ड्रामे के बाद इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि सिंधिया को प्रदेशाध्यक्ष बनाकर उनके सम्मान की रक्षा की जाएगी, लेकिन दिल्ली दरबार ने यह कहकर प्रदेश अध्यक्ष की घोषणा को टाल दिया कि लोकसभा चुनाव की वजह से फिलहाल कमलनाथ ही सूबे के सरदार और असरदार बने रहेंगे, तो उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। आलकमान पर दबाव बनाने के लिए हरसंभव कोशिश की गई, लेकिन नाकामयाबी ही हाथ लगी, क्योंकि दिग्विजय सिंह और कमलनाथ किसी भी तरह से अपने सियासी रसूख को गंवाना नहीं चाहते थे।

सिंधिया समर्थक जो मंत्री बनाए गए थे उनकी भी सुनवाई नहीं हो रही थी। सिंधिया समर्थक मंत्रियों और विधायकों को हाशिए पर धकेल रखा था। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कमलनाथ को खत लिखकर चंबल इलाके की समस्याओं से रुबरू करवाया और उनके समाधान की गुजारिश की, लेकिन कमलनाथ ने उनको इस मामले में भी कोई तवज्जो नहीं दी। सियासी अदावत की हदें उस वक्त पार हो गई जब सिंधिया ने भोपाल में चार इमली इलाके के एक बंगले की ख्वाहिश जाहिर की, लेकिन इस बंगले को कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ को अलॉट कर दिया गया। सिंधिया ने अब कांग्रेस को आइना दिखाने का फैसला किया और अपना दमखम दिखाने के लिए सड़कों पर उतरने की बात कही, तो कमलनाथ ने बड़े ही हल्के अंदाज में इसको लेते हुए कहा कि ‘वह उतर जाए सड़कों पर’

भगवा रंग में रंगे सिंधिया

जब राज्यसभा में जाने का मन बनाया तो कमलनाथ और दिग्विजयसिंह ने यहां भी टांग अढ़ाई और राज्यसभा जाने के उनके सारे रास्ते को बंद कर दिया। इसके बाद सिंधिया ने ठान लिया कि दिल्ली दरबार और सूबे के सियासी अदावत में खुलकर खेलने का वक्त आ गया है और पिछले साल मार्च में कांग्रेस को छोड़ते हुए भाजपा के भगवा रंग में रंग गए।

संघ के साथ किया बेहतर तालमेल

दिल्ली में जब उन्होंने भाजपा ज्वाइन की तो उन्होने कहा कि कांग्रेस अब पहले वाली कांग्रेस नहीं रही। 2018 में हमने जो वादे वचनपत्र में किए थे उनको पूरा करने की जहमत कभी नहीं उठाई गई। सिंधिया ने भगवा पार्टी में एंट्री लेने के बाद भाजपा नेताओं और संघ के पदाधिकारियों से बेहतर तालमेल बनाने की कवायद शुरू की।

इसकी एक झलक 28 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में देखने को मिली, जहां पर उनके 13 समर्थक विधायक जीतने में कामयाब रहे, हालांकि उनके 6 विधायकों को हार का मुंह भी देखना पड़ा, लेकिन उनके सियासी रसूख पर इसका कोई खास असर नहीं हुआ और आज ज्योतिरादित्य सिंधिया की सीएम शिवराज सिंह चौहान के साथ बेहतर जुगलबंदी हो रही है और इसी का नतीजा है कि हाल ही में हुए कैबिनेट विस्तार में उनके दो खास समर्थकों की ताजपोसी की गई और मनमाफिक महकमे भी सौंपे गए। भले ही कांग्रेस यह कह रही हो कि वो बाजपा में सियासी हाशिए पर चले गए है, लेकिन प्रदेश की सियासत में वो सिकंदर बनकर उभरे हैं।

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