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क्या है पीएम मोदी के नेपाल दौरे की पॉलिटिक्स ?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोमवार को दुनिया को शांति का संदेश देने वाले भगवान बुद्ध की जन्मस्थली लुंबिनी, नेपाल पहुंचे। लेकिन अब सवाल उठता है की ऐसा क्या है, जो मोदी ने लुंबिनी को ही चुना। इस जवाब से पहले बता दें कि नेपाल में जब केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री थे, तब चीन से उनकी नजदीकियां जगजाहिर थीं। अब शेर बहादुर देउबा प्रधानमंत्री हैं, जो भारत समर्थक माने जाते हैं। देउबा पिछले महीने पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी आए और भगवान विश्वनाथ के दर्शन किए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लुंबिनी में भारत की पहल पर बनाए जा रहे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर फॉर बौद्ध कल्चर एंड हेरिटेज की आधारशिला रखी। इस सेंटर में बौद्ध परंपरा पर स्टडी होगी। इस बौद्ध सांस्कृतिक केंद्र को बनाने में भारत 1 अरब रुपए खर्च कर रहा है। यह वही जगह है, जहां पर चीन की कम्‍युनिस्‍ट सरकार अपने ‘डेब्‍ट ट्रैप’ के जरिए 3 अरब डॉलर की सहायता से विश्‍व शांति केंद्र बनाना चाहती है। यही नहीं चीन की मंशा भारतीय सीमा से मात्र कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित लुंबिनी तक अपनी रेलवे लाइन पहुंचाने की भी है।

लुंबिनी जाने से भारत-नेपाल के राजनीतिक रिश्ते तो मजबूत होंगे ही, साथ बौद्ध कूटनीति से एशिया को भी एक सूत्र में भी बांधा जा सकता है। दरअसल, दुनिया की बड़ी बौद्ध आबादी चीन, नेपाल भूटान, श्रीलंका और थाईलैंड जैसे देशों में रहती है। इसीलिए भारत बौद्ध कूटनीति से एशिया को एकता के सूत्र में बांध सकता है।

भारत में बौद्ध धर्म के मानने सबसे ज्यादा महाराष्ट्र में हैं। यहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। राज्य में फिलहाल, कांग्रेस-NCP और शिवसेना की सरकार है और भाजपा प्रमुख विपक्षी दल है। प्रधानमंत्री की इस यात्रा का धार्मिक के साथ राजनीतिक महत्व भी माना जा सकता है। यहां से वो महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और देश के बाकी बौद्धों को भाजपा से जोड़ने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। भारत में बौद्ध लोगों की आबादी भले ही कम हो, लेकिन भारत का इतिहास बुद्ध और बौद्ध धर्म के बिना पूरा नहीं होता। नेपाल में बौद्ध दूसरी बड़ी आबादी है। सिर्फ लुंबिनी में ही 1 लाख 58 हजार बौद्ध रहते हैं। इस मुलाकात के बाद भारत और नेपाल की साझी बौद्ध विरासत दोनों के राजनीतिक संबंध भी बेहतर होंगे।

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