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The Kashmir Files Review: कश्मीरी-हिंदुओं के दर्द को पर्दे पर साकार करती है फिल्म ‘द कश्‍मीर फाइल्‍स’

इतिहास के पन्‍नों में ऐसी कई दर्दनाक घटनाएं दर्ज हैं, जिसने इंसानियत और समाज दोनों को न सिर्फ शर्मसार किया, बल्‍क‍ि ऐसा जख्‍म दिया जिसके निशान आज भी मिलते हैं। कश्‍मीर से अल्‍पसंख्‍यक हिंदू पंडितों का पलायन, उनकी दुर्दशा ऐसी ही एक सच्ची त्रासदी है। ‘द कश्‍मीर फाइल्‍स’ (The Kashmir Files Review) एक ऐसी फिल्‍म है, जो आपको भावनात्मक रूप से जगाती है। यह 1990 के दशक की कश्मीर घाटी को दिखाती है। कश्‍मीरी पंडितों पर आतंकियों के जुल्‍म को दिखाती है। आतंकवादियों द्वारा पंडितों को उनके घरों से भागने के लिए मजबूर किए जाने की कहानी कहती है।

यह कहानी रिटायर्ड टीचर पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) और उनके परिवार को केंद्र में रख कर चलती है. उनके बहाने कश्मीरियों के जख्मों और तकलीफों को दिखाती है. जेएनयू, दिल्ली में पढ़ने वाला उनका जवान पोता कृष्णा (दर्शन कुमार) जब कश्मीर पहुंचता है, तो पुष्कर नाथ के पुराने दोस्तों आईएएस ब्रह्मदत्त (मिथुन चक्रवर्ती), डीजीपी हरि नारायण (पुनीत इस्सर), डॉ. महेश कुमार (प्रकाश बेलावाडी) और पत्रकार विष्णु राम (अतुल श्रीवास्तव) से मिलता है. वहां उसका सामना हकीकत से होता है. वह उस आतंकी फारूक मलिक बिट्टा (चिन्मय मांडलेकर) से भी रू-ब-रू होता है, जो उसके परिवार समेत कश्मीर की बर्बादी का जिम्मेदार है. विश्व विद्यालय में कश्मीर को देश से अलग करने के नारे लगाने वाले कृष्णा को वहां सचाई पता लगती है और उसकी आंखों के आगे से पर्दे हटते हैं. विवेक अग्निहोत्री ने फिल्म में कश्मीर से जुड़े दुष्प्रचारों को अपनी फिल्म में लाने की कोशिश तो की है लेकिन उसे लेकर ज्यादा मुखर नहीं हुए हैं. ताशकंद फाइल्स में जहां उनका फोकस पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमयी मृत्यु को लेकर हुई राजनीति पर था, वहीं कश्मीर फाइल्स में वह राजनीति से अधिक वहां हुए हिंसक घटनाक्रम और कश्मीर को भारत से तोड़ने वाली षड्यंत्रकारी सोच पर फोकस करते हैं.

फिल्म में दिखाई हिंसा कहीं-कहीं हिला देती है. एक दृश्य में चावल की कोठी में छुपे पंडित के बेटे को जब आतंकी गोलियों से छलनी कर देता है तो उसके खून से सने चावल बिखर जाते हैं. आतंकी पंडित की बहू से कहता है कि अगर वह इन चावलों को खाएगी, तभी उसकी और परिवार के दूसरे लोगों की जान बच सकती है. वह चावल खाती है. एक और दृश्य में आतंकी पुलिस की वर्दी में 24 कश्मीरी-हिंदुओं को एक कतार में खड़ा करके गोलियों से भून देते है. छोटे बच्चे को भी नहीं बख्शते. वे कश्मीरी-हिंदुओं और भारत का अपमान करने वाले नारे लगाते हैं. महिलाओं को हर तरह से अपमानित करते हुए पाशविक हिंसा हैं.

करीब तीन घंटे की इस फिल्म का पहला हिस्सा जहां कश्मीर में 1990 में हुए भीषण नरसंहार पर केंद्रित है, वहीं दूसरे में निर्देशक कृष्णा के बहाने नई पीढ़ी के असमंजस को दिखाते हैं, जिसे बताया कुछ गया है और सच कुछ और है. फिल्म में कश्मीर की आजादी के नारे, बेनजीर भुट्टो के वीडियो और फैज की नज्म हम देखेंगे वही निर्देशक आतंकियों और अलगाववादियों के इरादे जाहिर करते हुए नई पीढ़ी की उलझन को सामने लाते हैं। काली बिंदी लगाई हुई वामपंथी-उदारवादी प्रो.राधिका मेनन के रूप में पल्लवी जोशी यहां युवाओं को गुमराह करने वालों का प्रतिनिधित्व करती हैं।

फिल्म बहुत सारे पीड़ितों की सच्ची कहानियों और दस्तावेजों पर आधारित है. कश्मीर फाइल्स बार-बार फ्लैशबैक में जाती है और एक सीध में नहीं चलती. तथ्यों पर अत्यधिक जोर देने के कारण कहीं-कहीं यह डॉक्युड्रामा की तरह भी लगती है. आर्टिकल 370 से लेकर शरणार्थी कैंपों में कश्मीरियों की दुर्दशा और उस पर राजनेताओं की संवेदनहीनता को भी निर्देशक ने यहां उभारा है. कश्मीर फाइल्स ऐसी कई सारी बातें सामनेलाती हैं, जो लोगों को जाननी चाहिए. यह मनोरंजन का नहीं, बल्कि संवेदना का सिनेमा है.

थोड़ा सा चूके डायरेक्टर

विवेक अग्निहोत्री ने सालों रिसर्च कर इस फिल्म की कहानी पर काम किया है जो स्क्रीन पर साफ नजर आता है। कश्मीरी पंडितों के विस्थापन और नरसंहार की इस कहानी में निर्देशक ने कई मुद्दे उठाए हैं। निर्देशक ने खासतौर पर तीन किरदारों के जरीए कश्मीरी पंडितों की पीड़ा दिखाने की कोशिश की है। फिल्म में हालांकि भावनात्मक पक्ष दिखाए है लेकिन थोड़ी कमियां भी नजर आती हैं। कहानी में कई चीजों को दोहराया गया। फिल्म में कई सारे मुद्दे एक के बाद एक सामने आते हैं जिसकी वजह से इसके कुछ किरदारों को छोड़कर किसी से खास जुड़ने का मौका नहीं मिलता।

फिल्म कश्मीरी-हिंदुओं पर हुए अत्याचारों को लगातार उभारते हुए, यह अंडरटोन सवाल लेकर चलती है कि इसका हिसाब कौन देगा और उन्हें न्याय कब मिलेगा? दर्शन कुमार और मिथुन चक्रवर्ती समेत सभी कलाकारों ने फिल्म में अपना काम बखूबी किया है. लेकिन अनुपम खेर का अभिनय हाई पॉइंट है. पुष्कर नाथ पंडित के रूप में अनुपम ऐसे शख्स की पीड़ा को पर्दे पर उतारते हैं, जो अपनी जमीन और घर से बेदखल होने के बाद पूरी जिंदगी फिर से वहां जाने का ख्वाब देखते हुए इस दुनिया से गुजर जाता है. कश्मीर भारत का सच है और इस सच के बहुत सारे सच हैं. बीते कई बरसों से सब अपने-अपने अंदाज में कश्मीर का सच कहते रहे हैं. कश्मीर फाइल्स भी एक सच दिखाती है और उसे भी देखा जाना चाहिए.

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