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राजशाही की रंजिशें लोकशाही में पड़ी भारी, दो सौ साल पुराना है सिंधिया और राघौगढ़ घराने में अदावत का इतिहास

मृदुभाषी स्पेशल। राजनीति में अक्सर विचारों की लड़ाई लड़ी जाती है और अवाम तक अपनी आवाज पहुंचाकर उसके दिलों पर राज किया जाता है, लेकिन जब मतभेद काफी गहरे हो जाएं तो सियासी जंग का रंग कुछ अलग हो जाता है। कुछ ऐसी ही दास्तां सिंधिया घराने और राघोगढ़ रियासत की रही है। 200 साल पहले शुरू हुई राजघरानों की जंग अभी भी जारी है। बस अंतर इतना आया है कि अब इस लड़ाई में तलवारों की जगह विचारों ने ले ली है।

पुरानी है सिंधिया और राघोगढ़ घरानों की जंग

सियासत में अदावत के किस्से तो काफी सुनने में आते हैं। राजनीति में रंजिशों का दौर भी काफी लंबा चलता है। कहीं सियासतदां के मतभेद हो जाते हैं तो कहीं मनभेद से राहें जुदा हो जाती है, लेकिन राघौगढ़ राजघराने और सिंधिया राजवंश की कहानी इन सबसे अलहदा है। 200 साल पहले पुरखों के समय छिड़ी जंग अभी तक जारी है। राजशाही के दौर में फैसला तलवारों को म्यान से निकालकर किया जाता था, तो अब लोकतंत्र की बिसात पर शह और मात का खेल खेला जा रहा है। दुश्मनी का ये दौर महाराजा और राजा के बीच सदियों से चला आ रहा है। बीते जमाने की यदि हम बात करें तो सिंधिया घराना राघौगढ़ रियासत पर हावी रहा और युद्ध के मैदान में इसको करारी शिकस्त दी थी। राजशाही से शुरू हुआ अदावत का यह सिलसिला लोकशाही में भी बदस्तूर जारी है।

सिंधिया राजघराने ने हराया था राघोगढ़ को

इतिहास के पन्नों पर जमे गर्दो-गुबार को साफ कर यदि हम अतीत के आईने पर गौर करें तो सिधिया राजघराने का पलड़ा काफी भारी दिखाई देता है। सिंधिया राजघराने का मराठा सरदार से लेकर महाराजा बनने तक का शाही सफर काफी दिलचस्प और हैरतअंगेज करने वाला रहा है। पानीपत की तीसरी जंग में अफगान हमलावार अब्दाली के आगे मराठों की विशाल सेना शिकस्त खा चुकी थी और महादजी सिंधिया लड़ाई में घायल हो गए थे, लेकिन उन्होंने फिर से पूरी शक्ति के साथ रियासत को संभाला और अपने शौर्य के बल पर 10 साल बाद 1771 में दिल्ली के मुगल दरबार पर अपना शिकंजा कसते हुए मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय को सिंहासन पर बिठा दिया।

दौलतराव सिंधिया ने हराया था राजा जय सिंह को

महादजी के बाद सिंधिया राजवंश का तख्त संभालने वाले दौलतराव सिंधिया ने 1802 में ऱाघोगढ़ पर हमला कर दिया। उस वक्त राघोगढ़ पर राजा जयसिंह का राज था। दौलतराव सिंधिया ने राजा जय सिंह को पराजित कर राघोगढ़ का ग्वालियर रियासत में विलय कर लिया। जय सिंह को राजा की जगह जागीरदार और राघोगढ़ रियासत को सिंधिया राजवंश की जागीरादारी वाला राज्य बना दिया। इस तरह दिग्विजय के पूर्वज सिंधिया घराने के लिए राजस्व वसूलने का काम करने लगे थे। ग्वालियर राजघराने को 21 तोपों की सलामी मिली, जबकि राघोगढ़ बिना तोप की सलामी वाला राज्य बनकर रह गया। इसके बाद भी दोनों रियासतों में लंबे समय तक तनातनी चलती रही।

विजयाराजे सिंधिया शामिल हुई थी कांग्रेस में

मुल्क को आजादी मिलने के बाद जब राजशाही की विदाई हो गई और लोकतंत्र की बयार देश में बहने लगी, तो रियासतों के राजा-महाराजा भी इसका हिस्सा बनने लगे। महाराजाओं का दौर बीत चुका था, लेकिन रंजिशों का दौर पहले की तरह जारी था। सिंधिया राजघराने से विजयाराजे सिंधिया ने कांग्रेस के जरिए सियासत में कदम रखा, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने जनसंघ का दामन थाम लिया। माधवराव सिंधिया ने अपनी सियासी पारी की शुरूआत कांग्रेस से की और कांग्रेस के कद्दावर राजनेताओं में उनकी गिनती की जाती थी।

माधवराव और दिग्गी राजा में रहे सियासी मतभेद

राघोगढ़ के सामंती परिवार से संबंध रखने वाले दिग्विजय सिंह का भी कांग्रेस से 50 साल पुराना नाता रहा है। 1970 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी को ज्वाइन कर अपना सियासी सफर शुरू किया था। कांग्रेस में मुख्तलिफ पदों पर रहने के बाद उनको साल 1993 में मध्य प्रदेश की बागडोर थामने का मौका मिला। इस तरह से 1993 से लेकर 2003 तक लगातार 10 साल वो प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे।

माधवराव की जगह बने थे दिग्विजय सिंह सीएम

1993 की यदि हम बात करें तो मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में माधव राव सिंधिया का नाम सबसे आगे था, लेकिन सेहरा दिग्विजय सिंह के सिर पर बंधा। इससे पहले 1985 में भी एक मौका ऐसा आया था जब माधव राव सिंधिया के खास दोस्त राजीव गांधी उनके लिए कुछ खास नहीं कर पाए और अर्जुन सिंह बाजी मार गए।

ज्योतिरादित्य सिंधिया से रहे वैचारिक मतभेद

मौजूदा समय की यदि हम बात करें तो घरानों की ये जंग पीढ़ी दर पीढ़ी जारी रही। कांग्रेस में दिग्विजय़ सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों की नजदीकियां गांधी-नेहरू खानदान से रही है, लेकिन ज्योतिरादित्य के तर्क पर दिग्विजय सिंह के दांवपेंच हमेशा भारी रहे। विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस का पंद्रह साल का वनवास खत्म हुआ तो ज्योतिरादित्य को पूरी उम्मीद थी की इस बार प्रदेश के सरताज वहीं होंगे, लेकिन दिग्विजयसिंह ने सोनिया दरबार से जुगलबंदी करते हुए कमलनाथ को सूबे का सरदार बना दिया।

ज्योतिरादित्य मन मसोस कर रह गए। इसके आगे भी उनकी मुश्किलें कम नहीं हुई। वह लोकसभा का चुनाव हार चुके थे, इसलिए उनकी ख्वाहिश थी कि उनको राज्यसभा के जरिए संसद में पहुंचने का मौका दिया जाए, लेकिन यहां भी दिग्गी राजा और कमलनाथ की जोड़ी भारी पड़ी और दिग्विजय सिंह ज्योतिरादित्य को शिकस्त देते हुए राज्यसभा पहुंच गए। अब ज्योतिरादित्य सिंधिया को इस बात का अहसास हो गया कि ना तो इस पार्टी में रहना फायदेमंद है ना ही चुप रहकर कुछ हासिल होगा। आखिर एक दिन ऐसा आया जब उन्होंने सभी पुराने हिसाब-किताब को पूरा करते हुए कमलनाथ की सरकार को गिरा दिया और भाजपा का दामन थाम लिया। इस तरह से पूरा सिधिया खानदान भगवा रंग में रंग गया और दुनिया की सबसे बड़ी जम्हूरियत में एक नए दौर की शुरूआत हो गई।

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