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ऋषि श्वेतकेतु ने इस कारण किया था विवाह संस्कार की परंपरा का प्रारंभ

Dharma: घर, संसार और दुनिया का अस्तित्व सात फेरों में समाया हुआ है किंतु विवाह संस्कार आदि-अनादि काल से कभी प्रचलन में नहीं थे और एक ऋषि के प्रयासों से वंशवृद्धि की इस परंपरा को विवाह के संस्कारों में व्यवस्थित किया गया। शास्त्रों के अनुसार, विवाह संस्कार की परंपरा ऋषि श्वेतकेतु ने प्रारंभ की थी। कौशीतकि उपनिषद के अनुसार श्वेतकेतु विश्वप्रसिद्ध गुरुभक्त आरुणि के पुत्र और गौतम ऋषि के वंशज थे। आरुणि को उद्दालक भी कहा जाता थे और छांदोग्य उपनिषद में भी श्वेतकेतु को आरुणि का पुत्र बताया है।

अष्टवक्र के भांजे थे श्वेतकेतु

कहा जाता है वह परम ज्ञानी संत अष्टवक्र के भांजे थे और उनको तत्वज्ञानी आचार्य भी कहा जाता था। इसी के साथ पांचाल देश के निवासी श्वेतकेतु की उपस्थिति राजा जनक की सभा में भी थी और इनका विवाह देवल ऋषि की पुत्री सुवर्चला के साथ हुआ था। आइए जानते हैं आगे की वह कथा जिसके कारण विवाह संस्कार चलन में आया। मान्यता है कि पुराने समय में जब विवाह संस्कार का अस्तित्व नहीं था उस वक्त स्त्रियां स्वतंत्र और उन्मुक्त जीवन व्यतीत करती थीं और उनमें पशु-पक्षियों के समान यौनाचार करने की प्रवृत्ति थी। वहीं एक बार जब श्वेतकेतु अपने माता-पिता के साथ बैठे हुए थे, तभी एक परिव्राजक आया और श्वेतकेतु की मां का हाथ पकड़कर उनको अपने साथ ले जाने लगा और यह सब देखकर श्वेतकेतु को काफी गुस्सा आया और उन्होंने परिव्राजक के आचरण पर विरोध दर्ज करवाया।

परिणय संस्कार की परंपरा का प्रारंभ

कहते हैं उस वक्त उनके पिता ने उनको समझाया कि स्त्रियां गायों की तरह स्वच्छंद जीवन व्यतित करती हैं और वह किसी के भी साथ समागम करने के लिए स्वतंत्र हैं। श्वेतकेतु को यह बात बहुत बुरी लग गई और उन्होंने कहा कि स्त्रियों को पति के लिए हमेशा ही वफादार होना चाहिए। ऋषि श्वेतकेतू ने घषणा की कि पर-पुरुष के साथ समागम करने का पाप भ्रूणहत्या की तरह ही माना जाएगा। ऐसे में जो पुरुष पतिव्रता स्त्री को छोड़कर अन्य स्त्रियों के साथ संभोग करेगा उसे भी यह पाप लगेगा। कहते हैं इस तरह से व्याभिचार पर लगाम लगी और एक सभ्य समाज का जन्म हुआ। इस तरह समाज को संस्कारित बनाने और स्त्री-पुरूषों के संबंधों को संस्कारों की माला में पिरोने का सिलसिला हमारे वैदिक ऋषियों ने प्रारंभ किया था।

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