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‘क्रांतिकारी महानायक भगवान बिरसा मुंडा’

विश्व के सबसे बड़े भारत के स्वाधीनता संग्राम की पूर्व पीठिका को निर्मित करने में जनजातीय आंदोलनों की सार्थक भूमिका रही है। यद्यपि इतिहासकारों ने इन अनसुने, अल्पज्ञात आंदोलनों की महत्ता को रेखांकित करने में न्याय नहीं किया। केन्या के लीडर जोमो केन्याटा ने कहा था कि ‘जब ब्रिटिश अफ्रीका आए तब उनके हाथों में बाइबल थी और हमारे पास जमीन, उन्होंने हमसे कहा चलो प्रार्थना करते हैं और जब हमने आंखें खोली तो हमारे पास बाइबिल थी और उनके पास हमारी जमीन।’

भारत में भी अंग्रेजों ने अपनी साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी कूट नीतियों से हमारी अमूल्य वन संपदा का निर्ममता से शोषण कर आदिवासी अंचलों के मौलिक स्वरूप को विकृत कर देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ दिया। इस ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्यास्त भी नहीं होता था और विद्रोही कवि अर्नेस्ट जोन्स के शब्दों में ‘वह इतना क्रूर भी हो गया था कि उसके उपनिवेशों में रक्त कभी नहीं सूखता था।’ ऐसे शक्तिशाली साम्राज्य के विरुद्ध बगावत की मशाल थामने वाले जनजातीय आंदोलन के महानायक थे बिरसा मुंडा जिन्होंने अपने अदम्य साहस, पराक्रम और शौर्य से आदिवासियों को संगठित कर जनजातीय अस्मिता, स्वायत्तता, संस्कृति और धर्मांतरण के विरुद्ध महासंग्राम का शंखनाद किया। उनका क्रन्तिकारी व्यक्तित्व इतना करिश्माई था कि अंग्रेजों में उनके नाम से ही दहशत रहती थी। इनका जन्म 15 नवंबर 1875 को लोहरदगा जिले के उलीहातु गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम सुगना और माता का कर्मी था। कृतज्ञ राष्ट्र आज उनका जन्म दिवस जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मना रहा है।

Birsa Munda, a tribal freedom fighter whose legacy lives on

भेड़ बकरियों को चराते

बांसुरी और हाथ में कद्दू से बने तारवाला तुईला वाद्य यंत्र बजाते, अखाड़े में कुश्ती करते-करते जल, जंगल, जमीन के उपासक बन गये। इनकी प्रारंभिक शिक्षा चाईंबासा मिशन स्कूल में हुई। गरीबी के कारण वे उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके। परिवार ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया। किंतु शीघ्र ही उनका ईसाई धर्म से मोहभंग हो गया। मिशन के फादर नौट्रोट ने वादा किया था कि यदि इस प्रांत के लोग ईसाई बने रहे तो उनकी छीनी हुई जमीनें वापस करा देंगे। किंतु ऐसा हो ना सका वरन उसने नवीन ईसाइयों को धोखेबाज कहा तो बिरसा ने इसकी तीखी आलोचना की और उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। ईसाइयों की वादाखिलाफी ने बिरसा के मन में बगावत का बीजारोपण कर दिया। बिरसा पर पूर्व के संथाल विद्रोह, युवान और कोल विद्रोह का व्यापक प्रभाव था। 1894 में छोटा नागपुर क्षेत्र में अकाल और महामारी के भयंकर प्रकोप में बिरसा ने सामाजिक दायित्व के निमित्त पीड़ितों की दिन रात नि:स्वार्थ सेवा की। लोगों ने उन्हें ‘धरती आबा’ अर्थात भगवान बना दिया।

Birsa Munda: The tribal folk hero who was God to his people by the age of  25 - India Today

बिरसा ने आदिवासियों को सशक्त बनाने के लिए आचरण की शुचिता,गांव की साफ-सफाई, झूठ न बोलने, शराब न पीने, मांस मछली न खाने तथा अंधविश्वास, पाखंडं,कुरीतियों, झाड़-फूंक, जादू टोना से दूर रहने का आव्हान किया। आर्थिक शोषण से मुक्ति के लिए बेगारी न करने और किसी भी प्रकार का लगान नहीं देने को प्रेरित किया। धार्मिक विश्वासों को ठेस पहुंचाने वाले पुरोहितों के तर्कहीन कर्मकांडों से सतर्क किया। गौ रक्षा, तुलसी पूजा, गीता पाठ और प्रार्थना के महत्व व जीवन की आचार संहिता अपनाने पर बल दिया। इस प्रकार बिरसा ने समुदाय में ‘बरसात’ की आस्था प्रारंभ की जो धर्मांतरण की त्रासदी के लिए चुनौती बन गयी। धीरे-धीरे बिरसा ने समुदाय को क्रांतिकारी बदलाव के लिए संगठित करना शुरू किया।

Jharkhand Birsa Munda Birth Anniversary Celebrated As Tribal Pride Day,  Know In Details | जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाई जा रही बिरसा मुंडा की  जयंती, जानें- कौन थे Birsa Munda

बिरसा पूर्व से ही सरदारी अर्थात पुनरुत्थानवादी आंदोलन के समर्थक थे जो जमींदारों को बाहर करने के लिए मुल्की लड़ाई के लिए समर्पित था। सरदारी आंदोलन एक शांत प्रकृति का आंदोलन था किंतु अंग्रेजों ने इसकी उपेक्षा की और यह अपने उद्देश्यों में कामयाब नहीं हो सका। इसके विपरीत बिरसा का आंदोलन उग्र, हिंसक,क्रांतिकारी था। बिरसा ने अंग्रेजों के शोषणकारी चरित्र को समझ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए धर्म का सहारा लिया और आदिवासियों द्वारा उन्हें भगवान मानने के विश्वास का सदुपयोग कर उन्हें जनआंदोलन के रूप में संगठित करने के लिए किया।

Birsa Munda, a tribal legend who was a nightmare for Christian missionaries  during the British Raj

अंग्रेजों के वन प्रतिबंध कानून ने आदिवासियों को उनके जीवन निर्वाह के प्रमुख स्रोत वन और वन उत्पादन से वंचित कर दिया था। उनकी पारंपरिक भूमि व्यवस्था को नष्ट कर दिया। जमींदारों ने आदिवासियों को उनकी जमीनों से बेदखल कर दिया। परंपरागत खुतकुंटी व्यवस्था जो सामूहिक भू-स्वामित्व के आधार पर प्रचलित थी उसे सरकार ने समाप्त कर निजी स्वामित्व की नई व्यवस्था लागू की जिससे मालिक और दास की स्थिति निर्मित हो गई। मुंडा ने मानकी प्रथा भी समाप्त कर दी। भू-राजस्व की दरें बढ़ने से आर्थिक स्थिति और दयनीय हो गई। समय पर लगान जमा न करने पर इन पर बर्बर अत्याचार किए गए । विवश होकर आदिवासियों ने ब्याज खोर साहूकारों से कर्जा लेना प्रारंभ किया। कर्ज न चुकाने पर साहूकारों ने जमीनें हड़प ली। मिशनरियों ने आदिवासियों की पारंपरिक संस्कृति को गहरा आघात पहुंचाया। इस प्रकार जनजातीय क्षेत्रों में दिकू अर्थात बाहरी लोगों का अनावश्यक हस्तक्षेप निरंतर बढ़ने से विद्रोह की ज्वाला धधकने लगी। बिरसा चाहते थे कि वन संबंधी बकाया में छूट दी जाए लेकिन अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी मांगों को ठुकरा दिया। अतः बिरसा ने अंग्रेजों के विरुद्ध उलगुलान अर्थात विद्रोह का शंखनाद कर दिकुओं को मार भगाने का आदेश दिया। बिरसा ने कहा कि ‘सिंगबोंगा’ की दया से समाज पुनः आदर्श व्यवस्था को प्राप्त करेगा। शोषण, उत्पीड़न अन्याय की समाप्ती होगी और ‘अबुआ दिशोम रे अबुआ राज’ अर्थात ‘हमारे देश में हमारा राज’ स्थापित होगा।

विद्रोह की विकरालता से घबराकर अंग्रेजों ने बिरसा को गिरफ्तार कर 2 वर्ष की सजा सुना दी। जेल से रिहाई के बाद बिरसा ने भूमिगत होकर सक्रिय रूप से युवा शक्ति को संगठित कर आंदोलन की अलग-अलग जिम्मेदारियां सौंपी। वे स्वयं महारानी विक्टोरिया के पुतले पर तीरों से वार करके तीरंदाजी का अभ्यास करने लगे। उनकी ख्याति एक असाधारण चमत्कारी व्यक्तित्व के रूप में फैलने लगी। लोगों का उनकी शक्तियों पर विश्वास बढ़ने लगा कि वे गंभीर से गंभीर बीमारियों को दूर कर सकते है। एक मुठ्ठी अनाज को कई गुना बढ़ा सकते हैं। उनमें ईश्वरीय अंश है, वे हमारे ‘धरती बाबा’ हैं।

बिरसा ने परंपरागत अधिकारों की प्राप्ति तथा जमीन को मालगुजारी से मुक्त कराने के लिए अनेक गुप्त सभाएं की। 24 दिसंबर 1899 को बिरसा ने हिंसक क्रांति उलगुलान का पुनः शंखनाद कर दिया। क्रांतिकारियों ने सिंहभूमि क्षेत्र के अनेक गिरजाघरों, धर्मोपदेशकों, पुलिस थानो पर परंपरागत हथियारों से हमला कर दिया। इस विद्रोह का प्रभाव संपूर्ण छोटानागपुर क्षेत्र में फैल गया। विद्रोह के मुख्य केंद्र खूंटी थाना पर विद्रोहियों ने आक्रमण कर दिया। थाने में घिरे कांस्टेबलों ने गोलियों की बौछार शुरू कर दी लेकिन कोई भी विदोही घायल नहीं हुआ। इस चमत्कार को देख बिरसा के अनुयायियों का यह विश्वास मजबूत हुआ कि भगवान बिरसा जो कहते हैं वह सत्य होता है। बिरसा ने कहा था कि ‘हम लोगों को उनके प्रहार से कहीं चोट न लगेगी उनकी बंदूकें और गोलियां पानी बन जाएंगी।’

इस घटना से चिंतित हो सरकार ने 8 जनवरी 1900 को विद्रोहियों को कुचलना शुरू कर दिया। भारी पुलिस बल और सेना की दो कंपनियों के साथ खूंटी में विद्रोहियों ने छापामार युद्ध शैली से उनका सामना किया लेकिन बंदूक की गोलियों के सामने तीर-धनुष की ताकत अधिक समय तक टिक नहीं पाई।
कैप्टन रोच ने सरवदा के निकट विद्रोहियों को पराजित किया किंतु विद्रोहियों का सैलाब रुका नहीं। वे डोंबारी पहाड़ी के निकट सइल रकब पहाड़ी पर गुप्त बैठक करने लगे। किंतु पुलिस को भनक लग गई और रांची के डिप्टी कमिश्नर ने विद्रोहियों को आत्मसमर्पण के लिए आदेश दिया लेकिन विद्रोही नहीं माने। बिरसा के परम भक्त नरसिंह ने कहा कि ‘अब राज हम लोगों का है, अंग्रेजों का नहीं। अगर हथियार रखने का सवाल है तो मुंडाओं को नहीं अंग्रेजों को हथियार रख देना चाहिए और अगर लड़ने की बात है तो हम आखिरी सांस तक लड़ने को तैयार हैं।’ तब अंग्रेज सेना ने अंधाधुंध गोलीबारी प्रारंभ कर दी जिसमें लगभग 200 जवानों और महिलाओं, बच्चों ने कुर्बानियां दी। करीब 300 विद्रोही बंदी बना लिए। धीरे-धीरे आंदोलन कमजोर पड़ता गया। अंग्रेजों ने बिरसा को गिरफ्तार करने के लिए ₹500 का इनाम घोषित कर दिया। इनाम को प्राप्त करने के लालच में जयचंद और मीर जाफर जैसे गद्दारों की तरह मानमारू और जरीकेल ग्राम के सात व्यक्तियों ने बिरसा के गुप्त स्थान की सूचना पुलिस को दे दी। अंततः तीन फरवरी 1900 को अंग्रेजों ने बिरसा को पत्नी सहित गिरफ्तार कर लिया। जेल में उन्हें मर्मांतक यातनाएं दी गई और अंत में हेजा रोग से रहस्यमय परिस्थितियों 9 जून 1900 को भगवान बिरसा ने अपने प्राण त्याग दिए।

Birsa Munda: Revisiting The Legacy Of Iconic Tribal Leader And Freedom  Fighter

बिरसा मुंडा कहते थे कि व्यक्ति मर सकता है किंतु उसका विचार नहीं।

नि:संदेह बिरसा का यह रक्तप्लावित जनजातीय विप्लव सिर्फ अंग्रेज़ों और शोषण के विरुद्ध ही नहीं था वरन समकालीन सामंती व्यवस्था के दमन, धर्मांतरण, सांस्कृतिक अस्मिता, स्वायत्तता एवं मानवीय गरिमा के सम्मान की रक्षा के लिए भी था।
यद्यपि इस आंदोलन से तत्काल कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ किंतु 1908 में छोटा नागपुर काश्तकारी कानून पारित हुआ जिसमें आदिवासियों की भूमि को गैर आदिवासियों को हस्तांतरित करने पर रोक लगी। बेगार प्रथा से मुक्ति मिली और आदिवासियों का विश्वास प्रबल हुआ कि उनमें अंग्रेजों के विरुद्ध भी विद्रोह करने की ताकत है।

वास्तव में बिरसा जनजातियों के ही नहीं वरन संपूर्ण भारत के जननायक हैं जिन्होंने राष्ट्र की रक्षा से बड़ा कोई पुण्य, कोई व्रत और कोई यज्ञ नहीं के मंत्र को चरितार्थ कर संगठित क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया जो भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की बुनियाद बनी। लोक नायक बिरसा मुंडा का त्याग और बलिदान आज भी हम सब के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनका कद छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप या वीरांगना लक्ष्मीबाई से किसी भी स्थिति में कमतर नहीं है।जनजातियों के मुक्ति संग्राम के अपराजेय योद्धा भगवान बिरसा मुंडा को शत-शत नमन।

मध्यप्रदेश के पूर्व वरिष्ठ आई एस एस अधिकारी

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