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National Handloom Day: इसलिए मनाया जाता है, नेशनल हैंडलूम डे

नेशनल हैंडलूम डे (राष्ट्रीय हथकरघा दिवस 2021) हर साल 7 अगस्त को मनाया जाता है। सबसे पहले जानते है की हैंडलूम डे क्या है। बतादें कि हैंडलूम बिजली के बिना चलने वाली एक छोटी मशीन या फ्रेम है जिसे करघा कहते है। इस पर हाथ से कपड़ों की बुनाई की जाती है। इस कारण से इसे हेंडलूम कहा जाता है। इसमें बिजली का प्रयोग नहीं किया जाता है। बतादें कि कालीन, मखमल, दर्री, बनारसी साड़ी, खादी के कपड़े इसी से बनाये जाते हैं।

इस दिवस को मनाने का एक बड़ा खास कारण है। राष्ट्रीय हथकरघा दिवस देश में कारीगरों, बुनकरों को सम्मान देने के लिए आयोजित किया जाता है। हमारे देश में प्राचीन समय से यह विधा प्रचलन है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी हथकरघा को उद्योग के रूप में स्थापित कर देश के युवाओं को स्वावलंबी बनने का सपना देखा था। उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार हथकरघा मजदूरों को सम्मान दिलाने हेतु राष्ट्रीय हथकरघा दिवस की शुरुआत 7 अगस्त 2015 से की थी।

7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया था।

गौरतलब है कि घरेलू उत्पादों और उत्पादन इकाइयों को नया जीवन प्रदान करने के लिए 7 अगस्त 1905 को कोलकाता के टाउन हॉल में स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत की गई। इसी कारण सरकार ने भी 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। भारत सरकार द्वारा 29 जुलाई 2015 को इस आंदोलन को दिवस के रूप में शुरू करने की घोषणा की।

बुनकरों की कई पीढ़ियां इस कार्य को परंपरानुसार करतीं आ रहीं है।

ग्रामीण इलाकों में जाएगें तो वहां अक्सर लोग कुछ न कुछ घरेलु उद्योग करते दिखाई देंगे। जैसे कि बीड़ी बनाना, टोकरी बनाना, सिलाई कढ़ाई के काम, गलीचे का काम आदि । बतादें कि यह सभी घरेलु उद्योग हैं। बुनकरों की कई पीढ़ियां इस कार्य को परंपरानुसार करतीं आ रहीं है। हालाँकि बुनकरों के विकास को ध्यान में रखकर ही सरकार ने कई नीतियाँ बनायीं हैं। लेकिन फिर भी बुनकरों के सामने कई समस्याए आतीं हैं जो उनके जीवनयापन को प्रभावित करती है।

14 से 16 घंटे तक कार्य करते है फिर भी उस अनुपात में मजदूरी नहीं मिलती।

हथकरघा से बने सामानों की मांग भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में है। इस उद्योग से भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। लेकिन इसका लाभ बुनकरों को न मिलकर कारोबारियों और बिचौलियों के जेब में चली जाती है। देश की आधी से अधिक बुनकरों की आबादी उत्तर पूर्वी राज्यों में है। उनमें से अधिकतर महिलाएं हैं। इस कारण महिलाओं को इस उद्योग की रीढ़ भी कहा जाता है। लेकिन इन बुनकरों को 14 से 16 घंटे तक कार्य करना पड़ता है फिर भी उस अनुपात में मजदूरी नहीं मिलती। जिससे कि बुनकरों की माली हालत बहुत ही खराब है। इसी के साथ स्वास्थ्य संबंधी कई समस्याएँ हैं। जिसमें कि बीमा योजनाएं पूरी तरह से इन तक नहीं पहुंचती और न ही बीमार बुनकरों एवं गर्भवती बुनकरों को अवकाश की सुविधा मिलती है। जरुरत है कि धरातल पर उतारकर हमे इनके बीच रहकर इनकी समस्याओं को सझना होगा और बुनियादी ढाँचे को ठीक करना होगा।

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