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इस किताब में हुआ खुलासा, चीन को लेकर जवाहर लाल नेहरू ने की थी भयानक भूलें

नई दिल्ली। क्या देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चीन के प्रति अधिक आशक्त थे, जिसकी वजह से तिब्बत और सीमा के सवाल पर सही नीति नहीं बना सके? क्या उन्हें भ्रमित किया गया था? या भारतीय राजनियकों की तैयारी बेहद खराब थी, जिसकी वजह से सीमा विवाद और चीन के साथ युद्ध हुआ? विदेश सेवा के दो अधिकारियों अवतार सिंह भसीन और पूर्व विदेश सचिव विजय गोखले की किताब ने उस दौरान चीन के प्रति भारतीय नीति की पड़ताल की है।

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भसीन की नई किताब नेहरू, तिब्बत एंड चाइना में आधिकारिक दस्तावेजों के जरिए बताया गया है कि किस तरह 1962 से पहले चीन और तिब्बत के प्रति नीतियों को अनाड़ीपन और भोलेपन से बनाया गया। चीन को यूएनएससी में सदस्यता दिलाने के लिए नेहरू के कैंपेन को लेकर अवतार सिंह भसीन ने कहा, शुरूआती सालों में भारत ने एशिया की एकजुटता के उद्देश्य को पूरा करने के लिए चीन को खुश करना चाहा। अभी तक इससे कोई खतरा नहीं महसूस किया गया था। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कुओमितांग चीन की जगह चीन को जगह दिलाने की नेहरू की इच्छा उनकी निष्पक्षता की भावना को दशार्ती है, चूंकि कम्युनिस्ट चीन ने मेनलैंड पर नियंत्रण पा लिया और भारत ने भी इसे मान्यता दे दी।

संयुक्त राष्ट्र में नेहरू चीन को UNO में स्थान दिलाना चाहते थे और दूसरी तरफ चीन के साथ सीमा बातचीत को लेकर भारत अनिच्छुक था और कोई तैयारी नहीं की। भसीन कहते हैं, भारत को किसी वजह से लगता था कि बातचीत का कोई हल नहीं निकलेगा। नेहरू ने चाउ से बातचीत से पहले यह भी कहा था कि हमारी दो सरकारों के नजरियों में इतना अंतर है कि उपयोगी बातचीत के लिए बहुत कम गुंजाइश है।

उन्होंने आगे कहा, बातचीत शुरू होने से एक सप्ताह पहले उन्होंने नेपाल के प्रधानमंत्री को विश्वास में लिया और कहा कि जहां तक मैं देख सकता हूं, चाऊ एन लाई से अगले सप्ताह बातचीत में भारत और चीन के बीच किसी भी तरह के समझौते के लिए कोई वास्तविक दृष्टिकोण नहीं होगा। स्पष्टतौर पर भारत के बेमन रवैये ने मदद नहीं की। संभावित झगड़ों के साथ सीमा विवाद कायम रहा।

पूर्व विदेश सचिव विजय गोखले लिखते हैं कि नेहरू ने ल्हासा में भारतीय दूतावास को वाणिज्य दूतावास में बदलने के चाउ एन लाई के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और उन्होंने इसके कानूनी या राजनीतिक प्रभावों पर विचार नहीं किया। वह लिखते हैं, बातचीत के लिए भारत अनौपचारिक तरीके और बिना पर्याप्त आंतरिक विचार-विमर्श के गया। दूसरी तरफ चीन की रणनीति व्यवस्थित और व्यावहारिक थी। उन्होंने भारत को ग्यांतसे और यादोंग से सेना को हटाने पर राजी कर लिया। वह यहां तक कहते हैं कि ल्हासा से मिले इनपुट ह्यचीन तिब्बत में भारत चीन सीमा के दस्तावेजों का अध्ययन कर रहा है, को नजरअंदाज करके भारत ने 1953 में त्याग कर दिया था। प्रधानमंत्री की ओर से 3 दिसंबर 1953 के एक नीति पत्र ने हमेशा के लिए यह तय कर दिया कि भारत-चीन की आगामी बैठकों में तिब्बत को लेकर सीमा का सवाल नहीं उठाया जाएगा, क्योंकि यह पहले ही हल हो चुका मुद्दा है।

भसीन लिखते हैं कि मई 1954 में शुरू हुए जेनेवा कॉन्फ्रेंस से पहले समझौते की उत्सुकता को लेकर भारत ने अपने ऊपर और दबाव डाल लिया… इसके लिए पहली सोच आंतरिक सुरक्षा नहीं बल्कि भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि थी। भारत से और अधिक छूट पाने के लिए चीन ने बातचीत को लंबा खींचा।

1950 में चीन की ओर से अक्साई चिन में सड़क बनाने को लेकर भारत की टिप्पणी के बारे में भसीन लिखते हैं, ह्यह्णयदि हम उस समय चीन के प्रति नेहरू के रुख को देखते हैं, वह इसके प्रति बहुत आशक्त प्रतीत होते हैं। 28 जुलाई 1956 को रक्षा मंत्री केएन काटजू पर उनकी टिप्पणी सबकुछ कह देती है। उन्होंने कहा कि वह चीन से अधिक नागा संकट को लेकर चिंतित हैं। उनकी सोच में चीन दोस्त था और वह कोई मुश्किल नहीं खड़ी करने वाला था।

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