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जैन संत विमद सागर खुदकुशी मामला, मौत पर लिखी थीं किताबें, बचपन से ही प्रिय था वैराग्य

इंदौर। दिवंगत दिगंबर जैन संत आचार्य श्री 108 विमद सागर जी महाराज का अंतिम संस्कार रविवार सुबह साढ़े ग्यारह बजे गोम्मटगिरी स्थित समर्थ सिटी के पास किया गया। सैकड़ों समाजजन और परिवार की मौजूदगी में उन्हें अंतिम विदाई दी गई। इससे पहले डोली यात्रा निकाली गई। उनके अंतिम संस्कार के स्थान पर निर्णय को लेकर चर्चा शनिवार देर रात तक चली। इसके बाद समाज के एक व्यक्ति के गोम्मटगिरी क्षेत्र स्थित खाली प्लाट पर अंतिम संस्कार करने का निर्णय लिया गया।

पोस्टमार्टम पर हुई तकरार

इससे पहले शनिवार रात जब पुलिस आचार्य का शव पोस्टमार्टम के लिए ले जाने लगी तो जैन साध्वी और संत अड़ गए कि पोस्टमार्टम नहीं करवाएं। पोस्टमार्टम करवाने से उनकी दीक्षा खंडित होगी। इस पर परदेशीपुरा टीआई पंकज द्विवेदी ने कहा कि दीक्षा तो आत्महत्या करने से भी खंडित हो गई है। काफी जद्दोजहद के बाद समाज के लोग पोस्टमार्टम के लिए राजी हुए। इस बीच इधर-उधर फोन भी घनघनाते रहे। आखिरकार शनिवार रात दस बजे पोस्टमॉर्टम के बाद अंजनी नगर स्थित एक भक्त के घर आचार्यश्री के पार्थिव शरीर को रखा गया था। रविवार सुबह डोली यात्रा के बाद अंतिम संस्कार किया गया। अंतिम संस्कार में भाग लेने के लिए संतश्री के पिता श्रीचंद जैन सागर से आए थे। आचार्य के पैतृक गांव शाहगढ़ (सागर) से लगभग 150 से अधिक की संख्या में परिवार और नजदीकी रिश्तेदार इंदौर आए थे। कोई भी इस बात का विश्वास नहीं कर रहा कि महाराज जी ने यह कदम उठाया है। 10 साल की उम्र से ही उन्हें वैराग्य प्रिय था। वे 8 महीने पहले रतलाम से विहार कर इंदौर आए थे। 25 दिन पहले ही गुमाश्ता नगर मंदिर से विहार हुआ था।

ऐन वक्त पर बोली स्थगित

रविवार सुबह बड़ी संख्या में समाजजन गोम्मटगिरी समर्थ सिटी के पास एकत्रित हुए जहां निजी प्लॉट पर उनका अंतिम संस्कार हुआ। इसके पूर्व बोली लगाई जानी थी लेकिन ऐनवक्त पर माइक पर उद्घोषणा की गई कि बोली नहीं लगाई जाएगी और जिन लोगों ने चातुर्मास के दौरान गुमाश्ता नगर में कलश स्थापना की थी वे आगे आएं। गुमाश्ता नगर में प्रीतपाल टोंग्या के परिवार ने कलश स्थापना की थी और यहां से संतश्री अन्य मंदिरों के लिए विहार करने वाले थे।

सबसे बड़ा रहस्य

सबसे बड़ा रहस्य नॉयलॉन की रस्सी पर ही है कि रस्सी कहां से आई। परदेशीपुरा टीआईर ने बताया कि परिस्थितियां खुदकुशी का ही इशारा कर रही हैं। अंदेशा है, वे नायलॉन की रस्सी लेकर कमरे में गए, वहां रखी टेबल पर चढ़कर पंखे से फांसी लगा ली। गले में भी रस्सी से लटकने के निशान हैं। उनके पास रस्सी कहां से आई, इसका खुलासा नहीं हो पाया है। पुलिस मामले की जांच कर रही है। उसे मामला संदिग्ध नजर आ रहा है। फिलहाल, आत्महत्या की वजह सामने नहीं आई है।

जांच जारी

-पुलिस को भी संदिग्ध नजर आ रहा है मामला। जांच जारी है।
-कोई भी विश्वास नहीं कर रहा कि महाराज जी आत्महत्या कर सकते हैं।
-पुलिस ने समाज के लोगों को संत के पोस्टमार्टम के लिए राजी किया।
-आत्महत्या की वजह सामने नहीं आई।

30 से ज्यादा किताबें लिखीं

आचार्यश्री ने 30 से ज्यादा किताबें लिखी थीं। मौत को विषय बनाकर उन्होंने कई किताबे लिखीं। उनमें मौत का मुहूर्त नहीं होता, कफन में जेब नहीं होती, मौत की पुकार जैसी किताब शामिल हैं। वे सामाजिक एकजुटता के लिए प्रयासरत थे। एक माह पहले इसके लिए उन्होंने शहरभर के सामाजिक संगठन की एकजुटता के लिए अध्यक्ष-मंत्री सम्मेलन का आयोजन भी किया था।

अंतिम आहार

आचार्य ने खुदकुशी से पहले अशोक जैन के यहां आहार किया था। अशोक के अनुसार आचार्य जब आहार के लिए आए तो उनके चेहरे पर किसी तरह का तनाव नजर नहीं आया। उन्होंने घर में मौजूद लोगों के सवालों के जवाब दिए। इस दौरान किसी बात से ऐसा नहीं लगा कि वे इस तरह का कोई कदम उठाने जा रहे हैं।

रोज सुबह होते थे प्रवचन

नंदा नगर स्थित पाश्वनार्थ दिगंबर जैन मंदिर के प्रबंधन ने बताया कि आचार्य विमद सागर महाराज यहां रोज सुबह 9 से 10 बजे तक प्रवचन देते थे। इसके बाद वे एक दिन छोड़कर आहारचर्या करते थे। शनिवार को भी वे आहारचर्या पर गए थे। दोपहर करीब ढाई बजे सामयिक के लिए पहुंचे। शाम को ये घटना घट गई।

पूरी तरह शुद्ध आहार लेते थे

समाजजनों ने बताया कि आचार्य ने दूध, शक्कर, तेल, का आजीवन त्याग कर रखा था। आहारचर्या के दौरान उनका आहार शुद्धता के साथ तैयार किया जाता था। आचार्यश्री खड़े होकर साधना करते थे।

विमद सागर जी का 29 साल का साधु जीवन

-9 नवंबर 1976 को हुआ था जन्म।
-8 अक्टूबर 1992 में ब्रह्मचर्य व्रत लिया।
-156 उपवास किए थे कर्म दहन के लिए
-101 उपवास दशलक्षण के दस बार किए।
-35 उपवास णमोकार मंत्र के किए थे।
-63 उपवास जिनगुण सम्पति के कर चुके थे।

संत बनने की तरह-तरह की क्रियाएं करते थे

आचार्य विमद सागर महाराज के साथ पढ़ने वाले प्रकाश जैन बताते हैं कि आचार्य श्री जब 10 साल के थे, तभी से उन्हें वैराग्य प्रिय था। वे संत बनने की तरह-तरह की क्रियाएं करते थे। 1991 में आचार्य श्री विराग सागर महाराज शाहगढ़ आए थे। यहां संजय कुमार उनके सान्निध्य में आए। उन्होंने संत बनने की क्रियाएं शुरू कर दी थीं। गुरुसेवा और आहार दान करना उनकी रुचि थी।

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