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क्या हम पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस मनाने के पात्र हैं?

क्या हम पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस मनाने के पात्र हैं?

मिलिंद बायवार\ पत्रकारिता लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की आजादी की कहानी शुरू होती है 1991 से साउथ अफ्रीका के पत्रकारों से। इन पत्रकारों ने मांग की थी कि प्रेस स्वतंत्रता दिन या पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस मनाया जाए। उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता के सिद्धांतों को लेकर बयान भी जारी किया था। इसे डिक्लेरेशन आफ विंडहोक कहा जाता है। इसके दो साल बाद 3 मई 1993 को यूएन महासभा ने हर साल 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिन यानी विश्व पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस मनाने का निर्णय लिया।

विडंबना है कि संयुक्त राष्ट्र की ओर से कई विश्व दिवसों की घोषणा की गई हैं, जैसे विश्व मजदूर दिवस, विश्व महिला दिवस, विश्व योग दिवस आदि, लेकिन ये दिन केवल रस्म बनकर रह गए हैं। हाल ही में 1 मई को विश्व मजदूर दिवस मनाया गया। वह भी सिर्फ रस्म ही थी। भारत की ही बात करें तो यहां मजदूरों की आवाज कहां सुनी जाती है? जबकि मजदूर दिवस की शुरुआत ही 1886 के बाद मजदूरों की गरिमा, श्रम को पूंजीपतियों की सत्ता से मुक्ति और मजदूरों के शोषण के खिलाफ जागृति पैदा करने के लिए हुई थी, लेकिन आज सत्ताएं पूंजीपतियों के कब्जे में हैं।

क्या हम पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस मनाने के पात्र हैं?
क्या हम पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस मनाने के पात्र हैं?

ऐसे में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारें भी मजदूरों के हित में पूंजीपतियों की सत्ता में दखल नहीं दे सकतीं। वहीं आम धनाड्य लोगों की बात करें तो वे मजदूरों के कितने हितैशी है, यह सभी जानते हैं। मजदूर मकान बनाता है, लेकिन क्या कोई मकान मालिक ऐसा होता है जो अपने मकान के उद्घाटन में उसे बनाने वाले मजदूरों को आमंत्रित कर उनका सम्मान करता हो, उनका शुक्रिया अदा करता हो। उन्हें कोई भेंट देता हो या उनके बच्चों की पढ़ाई के बारे में चिंता करता हो। ऐसे में ये विश्व दिवस कोई मायने नहीं रखते।

अब बात करें विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस की तो अभी प्रेस की आजादी को लेकर भारत सहित दुनियाभर में चर्चा जोरों पर है। अधिकांश देशों में प्रेस आजाद नहीं, बल्कि गुलाम हैं। जिस तरह मजदूर पूंजीपतियों के गुलाम हैं, उसी तरह प्रेस भी सत्ता के गुलाम हैं। पत्रकारों से उनके हक छीन लिए गए हैं। वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे इंडेक्स को देखें तो पता चलता है कि रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा प्रकाशित इस इंडेक्स में हमारे देश की रैंकिंग लगातार गिरती जा रही है। पिछले साल यानी 2022 में 180 देशों की लिस्ट में भारत 150वें नंबर पर था। 2021 में भारत की 142वीं रैंक थी। 2016 में 133वीं रैंक थी।

यानी गिरावट पर गिरावट का दौर। वहीं हमारे पड़ोसी छोटे से देश नेपाल की बात करें तो पता चलता है कि 2022 में इस देश ने 2021 की तुलना में 30 रैक की उछाल भरकर 180 देशों में 76वीं रैंक हासिल की। जबकि चीन की रैंक 175वीं, पाकिस्तान की 157वीं, बांग्लादेश की 162वीं और श्रीलंका की146वीं है। हालांकि विदाउट बॉर्डर्स द्वारा प्रकाशित इस इंडेक्स पर हमारे देश के नीति आयोग, प्रेस काउंसिल आॅफ इंडिया और सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने सवाल उठाए हैं। इन संस्थानों ने इस इंडेक्स को बनाने में अपनाई गई प्रक्रिया पर शंका जाहिर की है। साथ ही इसे ट्रांसपरेंट नहीं माना है।

अब बात करें पत्रकारिता के पेशे के जोखिम की तो आरआरएजी यानी राइट एंड रिस्क एनालिसिस ग्रुप नाम की संस्था ने अपनी स्टडी में दावा किया है कि 2020 में भारत में 228 पत्रकारों पर हमले किए गए। इनमें से 13 पत्रकारों की मौत हो गई। इनमें यूपी के 6, मप्र के 2 और असम के 2 पत्रकार शामिल हैं। बात यदि 2022 की करे तो यूनेस्को के डेटा के मुताबिक भारत में 22 पत्रकारों की हत्या हुई। यूनेस्को ने दुनियाभर का 2022 का आंकड़ा जारी करते हुए कहा था कि ऐसा लगता है कि पत्रकारों के लिए दुनिया में कोई भी जगह सेफ नहीं है।

ज्ञात हो कि 2016 से 2021 के अंत तक दुनियाभर में 455 पत्रकारों की हत्या हुई । सबसे बड़ी बात यह है कि जितने पत्रकारों की हत्या हुई, उनमें से आधे पत्रकार ऐसे समय मारे गए जब वे ड्यूटी पर नहीं थे। किसी पर पार्किंग में हमला किया गया। किसी पर घर पर पहुंचकर तो किसी पर सार्वजनिक स्थल पर। ज्ञात हो कि हमारे संविधान ने हर नागरिक को लिखने और बोलने की आजादी दी है। ऐसे में जिनका पेशा ही पत्रकारिता है, उन पर हमले चिंता का विषय हैं।

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