वाराणसी: छोटी सी उम्र में घर के हालात कुछ इस तरह से बदतर हो गए थे कि जीवन में संघर्ष के अलावा कुछ था ही नहीं, लेकिन उन्होंने हार नही मानी और जिंदगी को बदतर से बेहतर बनाने का संकल्प लिया। वक्त गुजरने के साथ उन्होंने अपनी जिंदगी संवारी और कई मजबूर बच्चों के मसीहा बने।
मुश्किल हालातों में गुजरा बचपन
हम बात कर रहे हैं डॉ. सुबोध कुमार सिंह की। महज 13 साल की उम्र में अपने पिता को गंवाने वाले सुबोध के परिवार के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया था। उन्होंने घर चलाने के लिए उन्होंने सड़कों पर समान बेचा और कई बार तो दुकानों पर छोटी-मोटी नौकरी भी की। बदतर हालात में उनको भाईयों को अपनी पढ़ाई छोड़ना पड़ी, लेकिन सुबोध की पढ़ाई जारी रही। उनका सपना डॉक्टर बनने का था इसलिए वह पढ़ाई के साथ घर चलाने के लिए एक दुकान में काम भी करते थे। उनका कहना है कि उनके पिताजी की मौत शायद अस्पताल में सही ढंग से इलाज न मिलने के कारण हुई थी। पिता की मौत के बाद घर चलाने के लिए घर पर बनी मोमबत्तियों, साबुन और काले चश्मों को सड़कों और स्थानीय दुकानों पर बेचना शुरु कर दिया।
मुफ्त सर्जरी कर देते हैं नया जीवन
तमाम मुश्किल हालातों के बावजूद सुबोध कुमार सिंह ने अपने सपने को पूरा करने के लिए जी तोड़ मेहनत की और 1983 में, आर्म्ड फोर्सेस मेडिकल कॉलेज (AFMC, पुणे), बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU-PMT) और उत्तर प्रदेश राज्य संयुक्त प्री मेडिकल टेस्ट (CPMT) की परीक्षा पास की। सुबोध ने मां की सेवा के उद्देश से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को चुना और सामान्य सर्जरी और प्लास्टिक सर्जरी के विशेषज्ञ बनें। जीवन के इस संघर्ष ने मुझे एक बात को सीखा दिया की मुझे अब जरूरतमंद की मदद करना है। इसके बाद मैने कटे होंठ वाले बच्चों की परेशानियों को समझा और इनकी विकृति को दूर करने के लिए मुफ्त चिकित्सा शिविर लगाना शुरू कर दिया।
मजबूर बच्चों को बनाया मजबूत
डॉ. सुबोध कुमार सिंह का कहना है कि इन बच्चों को स्तनपान कराने में मुश्किल होती है। वश्यकतानुसार दूध नहीं पी सकते हैं इसलिए उनमें से कई तो कुपोषण के कारण मर जाते हैं या फिर उनकी ग्रोथ रुक जाती है साथ ही सामाजिक प्रताड़ना का भी शिकार होना पड़ता है। डॉ. सुबोध ने साल 2004 से ऐसे बच्चों की फ्री सर्जरी करनी शुरू की थी। तब से लेकर अब तक वह 37,000 बच्चों और 25,000 परिवारों को अपनी सेवाओं से लाभांवित कर चुके हैं।