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चापेकर बंधू: इन महापुरुष को आदर्श मान कर, तीन सगे भाईयों ने देश के लिए दिया था बलिदान

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में असंख्य लोगों ने अपना योगदान दिया। आज समूचा देश उन क्रांतिवीरों के प्रति कृतज्ञ है, जिन्होंने अपने हृदय के रक्त से स्वतंत्रता आंदोलन को सींचा। ऐसे ही वीर हुए महाराष्ट्र के चापेकर बंधु। चापेकर बंधु के रूप में, दामोदर हरि चापेकर, बालकृष्ण चापेकर और वासुदेव चापेकर प्रसिद्ध हैं। तीनों ही भाई, बाल गंगाधर तिलक से अत्यधिक प्रेरित थे। उनकी प्रेरणा से वे राष्ट्रहित के कार्य में संलग्न हुए और अपने प्राणों की आहुति दी।

दामोदर बचपन से भजन-कीर्तनों में रूचि रखते थे

दामोदर हरी चापेकर का जन्म 24 जून, 1869 को महाराष्ट्र के पुणे में हुआ। उनके पिताजी का नाम हरिपंत चापेकर था। माता-पिता के वे ज्येष्ठ पुत्र थे। उन्हें दो भाई थे जिनका नाम बालकृष्ण चापेकर और वासुदेव चापेकर था। महाराष्ट्रियन संस्कृति में पले-बढे दामोदर बचपन से भजन-कीर्तनों में रूचि रखते थे। बचपन से उन्हें सैनिक बनकर देश की सेवा करने की इच्छा थी।

गायन के साथ काव्यपाठ का भी बहुत शौक था

महर्षि पटवर्धन और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को वे अपना आदर्श मानते थे। दामोदर चापेकर और उनके भाई तिलक जी को गुरुवत सम्मान देते थे। बचपन से दामोदर जी को गायन के साथ काव्यपाठ और व्यायाम का भी बहुत शौक था।

चापेकर बंधु अपने देशवासियों को बीमारी से तड़पता देख रहे थे

वर्ष 1896 में पुणे समेत महाराष्ट्र के अधिकांश स्थानों में प्लेग का प्रकोप फैला। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने लोगों की सहायता करने के स्थान पर, उन पर अत्याचार करना प्रारंभ कर दिया। पुणे में प्लेग निवारण समिति के अध्यक्ष चार्ल्स रैंड थे। राहत पहुंचाने की जगह उन्होंने आम जनता को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। चापेकर बन्धु इससे बेहद क्रुद्ध हो गए। वे अपने देशवासियों को बीमारी से तड़पता देख रहे थे। ब्रिटिश सरकार की अव्यवस्था के कारण भी कई लोगों की मृत्यु हुई। इसके अतिरिक्त चार्लस रैंड के सहयोगी अधिकारी आर्यस्ट भी पंडित बाल गंगाधर तिलक को बेहद कष्ट पहुंचा रहे थे। वे आम भारतीयों की भावनाओं का भी सम्मान नहीं करते थे और मंदिरों व पूजाघरों में जूते और चप्पल पहनकर घुस जाया करते थे। इसका विरोध करने पर बाल गंगाधर तिलक कई बार जेल भी गए। प्लेग के प्रकोप और ब्रिटिश अधिकारियों के अत्याचार के प्रतिरोध में चापेकर बंधुओ ने कमर कस ली। उन्होंने इन अधिकारियों को सबक सिखाने का निश्चय कर लिया।

22 जून 1897 को की ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या

वह 22 जून, 1897 का दिन था। आधी ही रात हुई थी। अंग्रेजों द्वारा पुणे के गवर्नमेंट हाउस में महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती का उत्सव मनाया जा रहा था। उत्सव समाप्त होने के बाद, पुणे की स्पेशल प्लेग कमेटी के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किए गए, चार्ल्स रैंड अपने तांगे पर सवार हो कर जा रहे थे। इनके पीछे सैन्य अनुरक्षक लेफ्टिनेंट आयेर्स्ट अपने तांगे में चल रहे थे। इसी बीच चापेकर बन्धु, गणेश खिंड रोड पर हाथों में बंदूक और तलवार लिए, अधिकारियों की प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही तांगा वहाँ से निकला, सबसे बड़े भाई दामोदर ने उसका पीछा शुरू किया और तांगे के बंगले पर पहुँचते ही उन्होंने आवाज लगाई –गोंडया आला रे आला। जैसे ही उनके अन्य भाइयों ने यह सुना, उन्होंने तांगे की पीछे गोली चला दी। गोली रैंड के बजाय आयेर्स्ट के तांगे पर लगी। इसके बाद उन्होंने रैंड के तांगे के पीछे दौड़ लगा दी और उसे गोली मार दी गई।

देशवासियों के लिए दिया बलिदान

रैंड को गोली मारने के तुरंत बाद दामोदर को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया और उन्हें मौत की सजा दी गई। जेल में इनकी भेंट बाल गंगाधर तिलक से हुई, जिन्हें भी गिरफ्तारी के बाद यरवदा जेल में रखा गया था। बालकृष्ण, वासुदेव और महादेव रानडे भी रैंड की हत्या में शामिल थे, पर ब्रिटिश सरकार उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पायी थी। दुर्भाग्यवश द्रविड़ भाइयों ने, जो खुद भी चापेकर क्लब का हिस्सा थे, कुछ ब्रिटिश अफसरों को इनके ठिकानों की जानकारी दे दी। इसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मौत की सजा दी गई। पंजाब केसरी लाला लाजपत राय ने चापेकर बंधुओं की मृत्यु पर लिखा था कि, वे वास्तव में भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के जनक थे।

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